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हिंदी साहित्य का इतिहास

हिन्दी शब्द की व्युत्पत्ति हिन्दी शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत भाषा के “सिन्धु” शब्द से मानी जाती है। हिन्दी भाषा का उद्भव और विकास- भारतीय भाषा का प्राचीनतम ग्रन्थ ऋगवेद है। ऋगवेद की भाषा संस्कृत थी, किन्तु समयचक्र सदैव गतिमान होने के कारण परिवर्तनशील है।
अतः भाषा भी धीरे-धीरे अनेक रुपों में परिवर्तित होने लगी। संस्कृत भाषा का समय 1500 ईसा पूर्व से 500 ईसा पूर्व का रहा। यह दो प्रकार की थी। पहली वैदिक संस्कृत जिसमें वेद, उपनिषद्, आरण्यक, ब्राह्मण एवं दर्शन आदि की रचना हुई व दूसरी लौकिक संस्कृत जिसमें रामायण और महाभारत इत्यादि की रचना हुई। यही लौकिक संस्कृत बोलचाल की भाषा के रुप में प्रचलित हुई। जिसका समय 500 ईसा पूर्व से ईसा की पहली शताब्दी तक माना गया।

जब कोई भाषा कवि और लेखकों का आश्रय पाकर नवीन भाषा में परिवर्तित हो जाती है तो साहित्यिक भाषा का रुप धारण कर लेती है। पाली भाषा में भी ऐसा ही हुआ। वह समय के अनुसार प्राकृत का रुप धारण करने लगी। प्राकृत का समय ईसा की पहली शताब्दी से लेकर 500 ईस्वी के बाद तक रहा। इस काल में जैन साहित्य प्रचुर मात्रा में लिखा गया। प्राकृत के समय जनपदों में क्षेत्रानुसार भाषा का प्रचार हुआ। यहीं से प्राकृत भाषा अपभ्रंश के रुप में प्रसारित हुई। विद्वानों ने प्राकृत भाषा के अंतिम चरण में अपभ्रंश का उद्भव माना है क्योंकि तत्कालीन प्रचलित शब्दों से यह पता चलता है कि प्राकृत के उत्तर्राद्ध में शब्दों में विकृति आना शुरु हो गया। जैसे गाथा शब्द गाहा और दोहा शब्द दहा के रुप में परिवर्तित हो गए। अपभ्रंश के समय देशी भाषायुक्त थोड़ी सरलता एवं मधुरता वाली भाषा का भी अभ्युदय हुआ इसे “अवहट्ठ” भाषा कहने लगे। मैथिलकोकिल विद्यापति ने इसी भाषा में अपनी दो चरनाएँ लिखी। पहली “कीर्तिलता” और दूसरी “कीर्तिपाताका” ये दोनों कृतियाँ अवहट्ठ भाषा की हैं।

अपभ्रंश भाषा के विभिन्न क्षेत्रीय रुपों एवं बोलियों से ही हिन्दी भाषा का उद्भव हुआ। हर्षवर्द्धन के शासन काल के पश्चात अपभ्रंश का प्रचार तेज गति से बढ़ा। अतः हिन्दी का प्रारंभिक काल अपभ्रंश साहित्य में ही दिखाई दिया। इसी काल में चौरासी सिद्धों में हिन्दी का रुप निखर करके आपा। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी को ग्राम्य अपभ्रंश का विकसित रुप माना है। अपभ्रंश भाषा के हेमचन्द्राचार्य ने सबसे पहले अपभ्रंश भाषा का व्याकरण “शब्दानुसार’ लिखा। अपभ्रंश भाषा का इतिहास बताता है कि हिन्दी अपभ्रंश के आंचल में पली बढ़ी यही प्रारम्भिक हिन्दी की बुनियाद है।

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अपभ्रंश से हिंदी भाषा का विकास

उदयनारायण तिवारी ने लिखा, आचार्य हेमचन्द्र के पश्चात् 13 वीं शताब्दी के प्रारंभ में आधुनिक भारतीय भाषाओं के अभ्युदय के संयम 15 वीं शताब्दी के पूर्व तक का काल संक्रान्ति काल था। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास में अपभ्रंश और प्राकृत की अन्तिम अवधारणा से ही हिन्दी साहित्य का आविर्भाव माना। डा. नामवर सिंह ने लिखा है, देश धीरे-धीरे इतना बढ़ा कि 13 वीं सदी तक आते-आते अपभ्रंश के सहारे से ही पूर्व और पश्चिम के देशों ने अपनी बोलियों का स्वतंत्र रुप प्रकट कर लिया। इसके भौगोलिक परिप्रेक्ष्य को देखें तो लगता है कि हिन्दी का क्षेत्र दो भागों में बँट गया प्रथम पूर्वी हिन्दी और द्वितीय पश्चिमी हिन्दी। अपभ्रंश का साहित्य हिन्दी के जन्म का कारण बना। अपभ्रंश अर्थात् शौरसेनी अपभ्रंश, पैशाची, ब्राचड, महाराष्ट्री, मगधी और अर्धमागधी के रुपों में प्रसारित हो रही थी। इनकी उपभाषाएँ एवं मुख्य बोलियों से ही हिन्दी का उद्भव माना गया है।

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उपभाषाएँ बोलियाँ
पश्चिमी हिन्दी खड़ी बोली, ब्रजभाषा, बुन्देली, हरियाणवी, कनौजी
पूर्वी हिन्दी अवधी, बघेली, छतीसगढ़ी
राजस्थानी मारवाड़ी, जयपुरी, मेवाती , मालवी
पहाड़ी पश्चिमी पहाड़ी, मध्यवर्ती पहाड़ी
बिहारी मैथिली, मगही, भेजपुरी

इस प्रकार हिन्दी में पाँच उपभाषाएँ और अठारह बोलियाँ शामिल हैं।

हिन्दी साहित्य इतिहास के लेखन की परंपरा

हिन्दी साहित्य का प्रथम इतिहास लेखन का श्रेय फ्रेंच भाषा के विद्वान को जाता है। इसका नाम “गार्सा द तासी” था। इनका “इस्त्वार द ला लितरेत्युर ऐंदुई-ए-ऐन्दुस्तासी” नाम से 1839 में प्रथम भाग प्रकाशित हुआ तथा द्वितीय भाग 1847 में प्रकाशित हुआ। यह हिन्दी और उर्दू के लगभग 70 कवियों का संग्रह है। यह गौरवपूर्ण गाथा हिन्दी के इतिहास लेखन की परंपरा में नींव का पत्थर थी। इस परम्परा को आगे बढ़ाते हुए शिवसिंह सेंगर ने “शिवासिंह सरोज” के नाम से 1883 में दूसरा इतिहास लिखा। हिन्दी साहित्य का सबसे प्रामाणिक इतिहास लिखने का श्रेय आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को जाता है। यह नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा “हिन्दी शब्द सागर” की भूमिका के रुप में 1929 में प्रकाशित हुआ।

हिन्दी भाषा पर सांस्कृतिक प्रभाव

भारत की धरा पर अनेक परम्परा के लोगों ने आक्रमण किया और वे यहाँ रच बस गए। भारत की धरती पर वैदिक धर्म के साथ बौद्ध धर्म व जैन धर्म का भी प्रसार हुआ वैदिक धर्म में आरण्यक, उपनिषद एवं दर्शन शास्त्रों की रचनाएँ हुई, इन्ही के कारण भारत विश्व में जगतगुरु कहलाया। ऋग्वेद हमारे साहित्य का मूल है। संस्कृत भाषा से पाली, पाली से प्राकृत, प्राकृत से अपभ्रंश की उत्पति हुई और क्षेत्रीय अपभ्रंश भाषाओं से उपभाषाएँ एवं बोलियाँ ही हिन्दी भाषा के जन्म का कारण हैं। इस हिन्दी साहित्य पर वैदिक कालीन संस्कृत के शब्दों की अमिट छाप है। जैसे- वाल्मीकि, वेदव्यास अश्वघोष, कालिदास, बाणभट्ट, दण्डी, जयदेव, माघ और कल्हण आदि कवियों ने तथा अपभ्रंश साहित्य के अनेक आचार्यो के काव्यों में हिन्दी भाषा को प्रभावित किया।

काल विभाजन और नामकरण

हिन्दी साहित्य के काल विभाजन को लेकर विभिन्न मत मतान्तर हैं। साहित्यिक परंपराएँ और प्रवृतियाँ निरंतर गतिशील रहती है। डा. गियर्सन ने कहा कि समय की परिर्वतनशीलता के कारण चिंतन धारा में भी परिवर्तन होता है। गियर्सन ने हिन्दी साहित्य के इतिहास को ग्यारह भागों में विभाजित किया। मिश्रबन्धुओं ने अपने इतिहास ग्रंथ “मिश्रबन्धु विनोद’ में निम्न प्रकार से काल विभाजन किया है।

    1. आरंभिक काल
      (क) पूर्व प्रारंभिक काल 700 से 1343 वि०
      (ख) उत्तरांभिक काल 1344 से 1444 वि०
    2. माध्यमिक काल
      (क) पूर्व प्रारंभिक काल 1445 से 1560 वि०
      (ख) पौढ़ माध्यमिक काल 1561 से 1680 वि०
    3. अलंकृत काल
      (क) पूवीलंकृत काल 1681 से 1790 वि०
      (ख) उत्तरालंकृत 1791 से 1889 वि०
    4. परिवर्तन काल- 1890 से 1925 वि०
    5. वर्तमान काल- 1926 से अद्यावधि
900 वर्षों के हिन्दी साहित्य

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने 900 वर्षों के हिन्दी साहित्य को चार भागों में विभाजित किया।

    • 1. वीरगाथा काल वि. 1050 से 1375 तक (993 से 1318 ई०)
    • 2. भक्तिकाल वि० 1375 से 1700 तक (1318 से 1643 ई.)
    • 3. दीतिकाल वि० 1700 से 1900 तक (1643 से 1843 ई०)
    • 4. गद्यकाल वि. 1900 से आजतक (1843 से अब तक)।

आचार्य शुक्ल के काल विभाजन एवं नामकर के पीछे कारण रहा है उस समय के साहित्यों की रचना का आधार। उनके काल विभाजन के दो आधार थे।

    • 1. किसी कालखण्ड में विशेष ढंग की रचनाओं की प्रमुखता।
    • 2. इस समय के ग्रन्थों की प्रसिद्धि।

शुक्ल जी ने निम्नलिखित 12 ग्रन्थों के आधार पर हिन्दी में प्रथम काल को वीरगाथा काल कहा। इस समय के प्रसिद्ध वीरगाथा के साहित्य निम्न हैं:

    1. विजयपाल रासो (नलसिंह कृत)
    2. हम्मीर रासो (शार्ङ्गधर कृत)
    3. खुमान रासो (दलपति विजय कृत)
    4. वीसलदेव रासो (नरपति नाल्ह कृत)
    5. पृथ्वीराजरासों (चन्दवरदाई कृत)
    6. जयचंद प्रकार (भटट् केदार कृत)
    7. जयमयंक जस चंद्रिका (मधुर कविकृत)
    8. परमाल रासो (जगनिककृत)
    9. खुसरो की पहेलियाँ (अमीर खुसरो कृत)
    10. कीर्तिलता (विद्यापति कृत)
    11. कीर्तिपताका (विद्यापति कृत)
    12. विद्यापति पदावली (विद्यापति कृत)।
खोजों के आधार पर अपभ्रंश

आज नवीनतम खोजों के आधार पर उत्कृष्ट अपभ्रंश के काव्य ग्रन्थ प्राप्त होने से शुक्ल जी का दृष्टिकोण त्रुटिपूर्ण प्रतीत होता है आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य के इतिहास को चार भागों में विभाजित किया।

    • 1. आदिकाल,
    • 2. पूर्व मध्यकाल,
    • 3. उत्तरकाल,
    • 4. आधुनिक काल

डॉ० नागेन्द्र ने अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास में काल विभाजन एवं नामकरण सामान्यतः इस प्रकार किया है।

    1. आदिकाल सातवीं शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी (700 वीं शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी के मध्य तक)
    2. भक्ति काल चौदहवीं शताब्दी के मध्य से सत्रहवीं के मध्य तक
    3. रीतिकाल सत्रहवीं शताब्दी के मध्य से उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक
    4. आधुनिक काल उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से अब तक

आधुनिक काल को भी पुनः विभाजित किया गया है।

    1. पुनर्जागरण काल (भारतेंदु काल) 1857 से 1900 ई. तक
    2. जागरण काल (द्विवेदी काल) 1900 से 1918 ई. तक
    3. छायावाद काल 1918 से 1938 ई० तक
    4. प्रगति काल 1938 से 1953 तक 5. नवलेखन काल 1953 ई० से अब तक

आदिकालीन साहित्य आदिकाल की मूल भाषा अपभ्रंश ही साहित्यिक भाषा के रूप में उभरकर आ रही थी। अपभ्रंश साहित्य लोक भाषा अपभ्रंश हिन्दी का पूर्ववर्ती रुप है। इसमें रचित विभिन्न साहित्यिक रचनाएँ:

    • 1. सिद्ध साहित्य
    • 2. जैन साहित्य,
    • 3. नाथ साहित्य आदि।
प्रसिद्ध रचनाकार

इस समय के प्रसिद्ध रचनाकार निम्न हैं।

    • सिद्ध साहित्य-सरहपा, शबरपा, लुइपा, डोम्बिपा कण्हपा, कुम्कुरिया आदि।
    • जैन साहित्य-जैन साहित्य के प्रमुख कवि स्वयंभू, पुष्पदन्त, धनपाल, देव सेन, शालिभद्रसूरि व हेमचन्द्र थे
    • नाथ साहित्य-नाथ सम्प्रदाप के प्रसिद्ध रचनाकारों में गोरखनाथ, चर्पटनाथ, चौरगंगीनाथ आदि
    • रासो साहित्य-आदिकाल में रासो ग्रन्थ पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। जैसे खुमान रासो, हम्मीर रासो, वीसलदेव रासो, परमाल रासो, विजयपाल रासो, पृथ्वीराज रासो आदि।
भक्ति काल (1318 से 1643 ई. तक)

भारतीय धर्म साधना के इतिहास में भक्ति मार्ग का विशिष्ट स्थान है। भक्ति साहित्य की दो धाराएँ-निर्गुण काव्य और सगुण काव्य के रूप में दिखाई देती है। निर्गुण धारा- इस धारा के प्रमुख कवियों में कबीर, रैदास, नानक, दादूदयाल, सुन्दरदास, मलूकदास रज्जब आदि अनेक सन्त थे। सगुण धारा-इस परंपरा में सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई, रामानंद, इश्वरदास, नाभादास, केशवदास आदि अनेक संत कवि हुए। असके अलावा निम्बाकाचार्य, वल्लभाचार्य, कुम्भनदास, रसखान आदि अन्य संत थे। रीतिकाल (1643 से 1843 ई. तक)-रीतिकालीन कवियों को स्पष्ट रुप से दो भागों में रखा जा सकता है रीतिबद्ध और रीतिमुक्त। रीतिबद्ध धारा के प्रमुख कवि चिन्तामणि त्रिपाठी, मतिराम, भूषण महाराजा जसवंत सिंह, देव पदमाकर, कवि गंग आदि। रीतिसिद्ध धारा के प्रसिद्ध कवियों में बिहारी ही एकमात्र कवि हैं। रीतिमुक्त धारा के प्रमुख कवि घनानंद, गुरुगोबिन्द सिंह, ठाकुर बुन्देलखण्डी, गिरधर कविराय, बनवारी इत्यादि।

आधुनिक काल (1843 से अब तक)

इस काल को अनेक उपखण्डों में विभक्त किया गया।

    • भारतेन्दु काल (1850-1885): इस काल के प्रसिद्ध कवियों और साहित्यकारों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बदरीनारायण चौधारी, प्रतापनारायण मिश्र, जगन्मोहन सिंह, अम्बिकादत व्यास, राधाकृष्ण दास आदि प्रमुख थे। द्विवेदी युग-इस काल के पथ प्रदर्शक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के नाम पर इस युग को ‘द्विवेदी युग’ कहा गया। इस युग के प्रसिद्ध साहित्कार नाथूराम शर्मा, श्रीधर पाठक, महावीर प्रसाद द्विवेदी, अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध, राय देवी प्रसाद, गया प्रसाद शुक्ल, मैथलीशर गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी, जयशंकर प्रसाद, भगवती प्रसाद और अन्य भी बहुत सारे साहित्यकार थे।
    • छायावाद (1918-1936:) छायावाद के लगभग 20 सालों में विपुल साहित्य रचा गया। इस युग के प्रमुख साहित्यकार माखनलाल चतुर्वेदी, सियारामशरण गुप्त, बालकृष्ण शर्मा, सुभद्राकुमारी चौहान, रामनरेश त्रिपाठी, उदयशंकर भट्ट, रामधारी सिंह दिनकर, आदि प्रमुख है।
    • छायावादोत्तर काल (1936 से): उत्तर छायावाद के प्रमुख रचनाकार सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर, जानकी वल्लभ शास्त्री, हरिवंशराय बच्चन, नरेन्द्र वर्मा, गोपाल सिंह नेपाली, गिरिजाकुमार माथुर और भारतभूषण अग्रवाल आदि प्रमुख है।
प्रगतिवाद

प्रगतिवाद के प्रमुख कवि और रचनाएँ इस प्रकार हैं, युगवाणी युगधारा, धरती प्रलय सृजन मुक्तिमार्ग इत्यादि तथा इस युग के प्रसिद्ध साहित्यकार पंत, निराला, शिवमंगल समुन, भारतभूषण अग्रवाल आदि इस युग के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। प्रयोगवाद-हिन्दी साहित्य में प्रयोगवाद 1943 में अज्ञेय द्वारा संपादित ‘तार सप्तक’ के प्रकाशन से माना जाता है। अन्य साहित्कारों में नेमिचन्द जैन, गजानन माधव मुक्तिबोध, भारतभूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे, गिरिजाकुमार माथुर, रामविलास शर्मा, प्रयाग नारायण त्रिपाठी, कुंवर नारायण, कीर्ति चौधरी, केदारनाथ सिंह, मदन वात्सायन, विजयदेव, नारायणदेव व सर्वेश्वर दयाल आदि प्रमुख है।
इनके अलावा धर्मवीर भारती, राहुल सांकृत्यान, प्रेमचंद, वनारसीदास चतुर्वेदी, रामवृक्ष बेनीपुरी और विनय मोहन शर्मा आदि अन्य लेखकगण हैं।

Last Edited: August 29, 2022